तनहा है कोई!
एक अरसे के बाद यूँ ही
कुछ दरख्तों के बीच
हवा गुजर सी जाती है
हौले से
बिलकुल पास से...
लगता है दूर
कहीं तनहा है कोई
शायद भीड़ में
बिलकुल तनहा
या फिर उन चिट्ठियों से दूर,
जिन्हें कभी हम लिखा करते थे
या बार-बार देखा करते थे
छुपा कर
घर या पीछे वाले बगीचे के
किसी कोने में
पोस्टमैन की घंटियों में
ढकी बैचैनी
बेहद अकेले में भी होता था
भीड़ का अहसास
पर इन चिट्ठियों की शक्ल
कुछ गुम सी हो गयी
मंद-मंद झोंके वाले डाकिये जैसी
महसूस तो होता है
सबको कि तनहा है कोई
जब चलती है हवा बिलकुल छूकर...
सोमवार, 19 अक्टूबर 2009
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