शनिवार, 25 जुलाई 2009

यादें

यादें
शहतूत के इस पेड़ से
लिपटी हुई वो यादें
रेशम के कोयों जैसी
बेहद मुलायम,
मीलों लम्बी,
कुछ डरी-डरी सी
गोया बाहर आने से
मिटने का खतरा हो

यादें
उस पतझड़ की
जब शहतूत के सारे पत्ते
झड़ जाते थे
किसी ठूंठ के मानिंद
तब कोई बुलबुल,
कोई नयी सी चिडिया
गाती थी उन ठूंठों पर
कुछ प्रेम-गीत सा

तुम
कहती थी देखना इसमें
कोंपलें आयेंगी
बिलकुल नयी सी, हरी-हरी
पर ये कोंपलें नहीं
तुम्हारे प्यार का अहसास है
जो फुनगियों पर चढ़कर
पहुंचेगा मुझ तक
पीछे वाले झरोखे से

जब भी देखना
इन कोंपलों को,
समझना मैं हूँ तुम्हारे पास
हर पल बिलकुल नयी सी, हरी
या याद कर रही हूँ तुम्हें
मीलों दूर से भी

फुनगियाँ तो अब भी हैं
मेरे झरोखें में
कोपलों के संग
यादें भी चुन-चुन कर
सजायी हैं करीने से
किसी बच्चे के
खिलौने के माफिक
पर तुम ?

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

रहती थी यहाँ कुछ कविताएँ

'युवा' के पाठकों के लिए रविन्द्र दास का परिचय पुराना है. यह कविता उनकी अनुमति से यहाँ हम दे रहे हैं पाठकों के लिए. यह कविता हमने उनके 'अलक्षित' ब्लॉग से लिया है:

रहती थी यहाँ कुछ कविताएँ

वैसे ही , जैसे रहती थी दादी की कहानियों में परियां

पिछवाडे वाले कुँए में

और सच्चे-ईमानदार लोगों के लिए जुटाती थी सुख के सामान

वही परियां सज़ा भी देती थी

लालची और मक्कार लोगों को।

कहानी की परियां

जिन्हें हमने कभी देखा नही

लेकिन महसूस किया है बहुत बार

अपनी दादी के निश्छल आगोश में

नासमझ कल्लू के लिए स्वादिष्ट पकवान लाती हुई

कल्लू की उस सूखी रोटियों के बदले ।

उन्हीं परियों की मानिंद कविताएँ

हमारे मानवीय सरोकारों भूखी है बेहद

कभी जब आप बैठेंगे सुस्ताने को

किसी पेड़ के नीचे या कुँए की जगत पर

आ जाएंगी परियां

कविताओं की शक्ल लिये

गोया आपको न भाये उनका रूप

हो गईं हैं पीली और कमजोर

स्नेहिल स्पर्श के अभाव में

बिलखती रहती हैं दिन-रात,

नहीं पहचानी जाती है उनकी शक्ल

तभी तो चल पड़ा है कहने का रिवाज़

कि रहती थीं यहाँ कुछ कविताएँ

वैसे ही जैसे रहती थी जलपरियाँ दादी की कहानियों में।

सोमवार, 13 जुलाई 2009

तू

तब तू कितनी भोली थी,
जब आँखें तुमने खोली थी.

मृगनयनी तब तूने अंगडाई लेकर
कुछ उऊँ-माँ जैसा बोली थी.

आँखों-ही-आँखों में कटती थी रातें,
माँ-दादी व मौसी की
फिर भी उनकी उनींदी आँखों की
तू सबसे प्यारी हमजोली थी.

इस निष्ठुर, निर्मम भीड़-भरे निर्जन में
चहुँ ओर फैले ईंट-पत्थर के वन में,
तू माँ, बहना, सखी, मेरी मुंहबोली थी.
कितना भी गम हो चाहे इस दिल में,
तेरा तुतलाना मेरी ठिठोली थी.

बढ़ गयी पकड़ तू उंगली सबकी
अहसास कभी तुझे होने न दिया,
तू छोड़ चली जायेगी कभी हंसते-रोते
यह भास कभी होने न दिया.

पर दुश्मन जमाने ने तुझको
यह भेद आखिर समझा ही दिया,
तोड़ के प्यार के सब बंधन
लड़का-लड़की के खांचे में बिठा ही दिया.

कैसे अब तू गयी है बदल
ना जाने किन दुश्मनों की टोली थी,
मेरी प्यारी कैसे समझाऊं
तू आज भी मेरी वही हमजोली थी.

बरसों पहले जब तुमने
मृगनयनी सी आँखें खोली थी,
अंगडाई लेकर कुछ
उऊँ-माँ जैसा कुछ बोली थी.


(उन सभी माँ-पिता और परिवार को समर्पित जिन्होंने बेटे-बेटी में कभी भेद नहीं समझा)