सोमवार, 13 जुलाई 2009

तू

तब तू कितनी भोली थी,
जब आँखें तुमने खोली थी.

मृगनयनी तब तूने अंगडाई लेकर
कुछ उऊँ-माँ जैसा बोली थी.

आँखों-ही-आँखों में कटती थी रातें,
माँ-दादी व मौसी की
फिर भी उनकी उनींदी आँखों की
तू सबसे प्यारी हमजोली थी.

इस निष्ठुर, निर्मम भीड़-भरे निर्जन में
चहुँ ओर फैले ईंट-पत्थर के वन में,
तू माँ, बहना, सखी, मेरी मुंहबोली थी.
कितना भी गम हो चाहे इस दिल में,
तेरा तुतलाना मेरी ठिठोली थी.

बढ़ गयी पकड़ तू उंगली सबकी
अहसास कभी तुझे होने न दिया,
तू छोड़ चली जायेगी कभी हंसते-रोते
यह भास कभी होने न दिया.

पर दुश्मन जमाने ने तुझको
यह भेद आखिर समझा ही दिया,
तोड़ के प्यार के सब बंधन
लड़का-लड़की के खांचे में बिठा ही दिया.

कैसे अब तू गयी है बदल
ना जाने किन दुश्मनों की टोली थी,
मेरी प्यारी कैसे समझाऊं
तू आज भी मेरी वही हमजोली थी.

बरसों पहले जब तुमने
मृगनयनी सी आँखें खोली थी,
अंगडाई लेकर कुछ
उऊँ-माँ जैसा कुछ बोली थी.


(उन सभी माँ-पिता और परिवार को समर्पित जिन्होंने बेटे-बेटी में कभी भेद नहीं समझा)

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी की यह कविता समाज की एक गंभीर त्रुटी की और इंगित करती हुई सुघड़, सुन्दर रचना है,
    साईट की सज-सज्जा आँखों को बहुत भली लगी, सादगी तो हैं लेकिन जीवंत है...
    हार्दिक बधाई इस नयी शुरुआत के लिए ...

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  2. मुझे आपका नया ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत सुंदर अभिव्यक्ति और सुंदर भाव के साथ लिखी हुई आपकी ये रचना बहुत अच्छी लगी! लिखते रहिये और हम पड़ने का लुत्फ़ उठाएंगे! बहुत बढ़िया!

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  3. बढ़ गयी पकड़ तू उंगली उनकी
    अहसास कभी तुझे होने न दिया,
    तू छोड़ चली जायेगी कभी हंसते-रोते
    यह भास कभी होने न दिया.

    bahut pyari rachna!

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  4. manohari rachna ,jeevan ke komal palon ko sanjoti hui,sunder .nirantar likhte rahiye.
    shubh kamnayen

    sadar dr.bhooprendra

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