यादें
शहतूत के इस पेड़ से
लिपटी हुई वो यादें
रेशम के कोयों जैसी
बेहद मुलायम,
मीलों लम्बी,
कुछ डरी-डरी सी
गोया बाहर आने से
मिटने का खतरा हो
यादें
उस पतझड़ की
जब शहतूत के सारे पत्ते
झड़ जाते थे
किसी ठूंठ के मानिंद
तब कोई बुलबुल,
कोई नयी सी चिडिया
गाती थी उन ठूंठों पर
कुछ प्रेम-गीत सा
तुम
कहती थी देखना इसमें
कोंपलें आयेंगी
बिलकुल नयी सी, हरी-हरी
पर ये कोंपलें नहीं
तुम्हारे प्यार का अहसास है
जो फुनगियों पर चढ़कर
पहुंचेगा मुझ तक
पीछे वाले झरोखे से
जब भी देखना
इन कोंपलों को,
समझना मैं हूँ तुम्हारे पास
हर पल बिलकुल नयी सी, हरी
या याद कर रही हूँ तुम्हें
मीलों दूर से भी
फुनगियाँ तो अब भी हैं
मेरे झरोखें में
कोपलों के संग
यादें भी चुन-चुन कर
सजायी हैं करीने से
किसी बच्चे के
खिलौने के माफिक
पर तुम ?
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thanks,ankahi ke liye kisi ne kuch nahin kaha to lo humne kahi.....ankahi..well said.
जवाब देंहटाएंवाह क्या बात है! बहुत खूब लिखा है आपने ! रचना की हर एक लाइन बहुत ख़ूबसूरत है!
जवाब देंहटाएंवाह !! प्रेम और सकारात्मकता से ओत प्रोत बहुत ही सुन्दर कोमल भावपूर्ण अभिव्यक्ति....
जवाब देंहटाएंबहुत ही इस सुन्दर प्रेम गीत के लिए आपको बहुत बहुत बधाई....
सतत सुन्दर लेखन के लिए शुभकामना....