'युवा' के पाठकों के लिए रविन्द्र दास का परिचय पुराना है. यह कविता उनकी अनुमति से यहाँ हम दे रहे हैं पाठकों के लिए. यह कविता हमने उनके 'अलक्षित' ब्लॉग से लिया है:
रहती थी यहाँ कुछ कविताएँ
वैसे ही , जैसे रहती थी दादी की कहानियों में परियां
पिछवाडे वाले कुँए में
और सच्चे-ईमानदार लोगों के लिए जुटाती थी सुख के सामान
वही परियां सज़ा भी देती थी
लालची और मक्कार लोगों को।
कहानी की परियां
जिन्हें हमने कभी देखा नही
लेकिन महसूस किया है बहुत बार
अपनी दादी के निश्छल आगोश में
नासमझ कल्लू के लिए स्वादिष्ट पकवान लाती हुई
कल्लू की उस सूखी रोटियों के बदले ।
उन्हीं परियों की मानिंद कविताएँ
हमारे मानवीय सरोकारों भूखी है बेहद
कभी जब आप बैठेंगे सुस्ताने को
किसी पेड़ के नीचे या कुँए की जगत पर
आ जाएंगी परियां
कविताओं की शक्ल लिये
गोया आपको न भाये उनका रूप
हो गईं हैं पीली और कमजोर
स्नेहिल स्पर्श के अभाव में
बिलखती रहती हैं दिन-रात,
नहीं पहचानी जाती है उनकी शक्ल
तभी तो चल पड़ा है कहने का रिवाज़
कि रहती थीं यहाँ कुछ कविताएँ
वैसे ही जैसे रहती थी जलपरियाँ दादी की कहानियों में।
शुक्रवार, 17 जुलाई 2009
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aapki kavitaon ki prastuti aur bhav bahut nutan hai ,acca bimb hai dadi ki kahaniyon me jalpariyon ki.
जवाब देंहटाएंbest wishes,
Dr.Bhoopendra
आपकी कविताओं में एक अलग सी बात है! सबसे अलग सबसे जुदा आपकी ये सुंदर कविता भाव के साथ लिखी हुई प्रशंग्सनीय है!
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता है... दिल को छूती हुई सी...
जवाब देंहटाएंwww.nayikalm.blogspot.com
dr. Bhupendra, babli aur Jayant,
जवाब देंहटाएंmitro, bahut-bahut shukriya.prem ki tarah kavita ke sath bhi ' bazari' log dushmani nikal rahe hain.
kintu aap aur ham jab tak hain kavita rahigi. aap sab ki jimmedar tippani ka dhanyvad.
jalpariya....really its different n very good poem....
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